Sunday, 6 July 2014

सच्ची कहानी - एक भारतीय राजकुमारी जो बनी दुनिया की जांबाज जासूस

Real story of a Indian Spy Princess :-
यह सच्ची और जाबांज़ कहानी है एक युवती नूर इनायत खान की, जो की मैसूर के महान शासक टीपू सुल्तान के राजवंश की राजकुमारी थी। बेहद खूबसूरत और मासूमियत से भरा चेहरा, आंखों की गहराई, वीणा पर थिरकती उंगलियां और रूह तक सीधे पहुंचने वाले सूफियाना कलाम के सुरीले बोल... ये सब नूर इनायत खान के  व्यक्तित्व का कभी हिस्सा हुआ करते थे, लेकिन नाजियों की तानाशाही नीति और द्वितीय विश्वयुद्ध के शुरू होने की घटना ने इस प्रिंसेस को अंदर तक झकझोर दिया था। यहीं से उसकी जिंदगी बदल गई और वह विश्व की एक जांबाज जासूस बन गई। सबसे हैरत की बात है कि वह ब्रिटेन की साम्राज्यवाद की नीति की विरोधी होने के बावजूद भी उनके लिए लड़ी। राजकुमारी हजरत नूर-उन-निसा इनायत खान ने द्वितीय विश्वयुद्ध में तानाशाह हिटलर की सेना के खिलाफ बड़े मिशन पर काम करते हुए गोली खाकर जान दे दी।



प्रारंभिक जीवन :-
नूर इनायत का जन्म 1 जनवरी, 1914 को मॉस्को में हुआ था। उनका पूरा नाम "नूर-उन-निशा इनायत खान" है। वे चार भाई-बहन थे,  वे अपने चारो भाई-बहनों में सबसे बड़ी थी। उनके पिता भारतीय और मां अमेरिकी थीं। उनके पिता हजरत इनायत खान 18 वीं सदी में मैसूर राज्य के टीपू सुल्तान के पड़पोते थे, जिन्होंने भारत के सूफीवाद को पश्चिमी देशों तक पहुंचाया था। वे एक धार्मिक शिक्षक थे, जो परिवार के साथ पहले लंदन और फिर पेरिस में बस गए थे। पूरा परिवार पश्चिमी देशों में ही रहने लगा। वही संगीत की रुचि नूर के भीतर भी जागी और वे बच्चों के लिए जातक कथाओं पर आधारित कहानियां लिखने लगी। उन्हें वीणा बजाने का शौक जूनून की हद तक था। 


नूर इनायत खान परिवार के साथ 

प्रथम विश्व युद्ध के तुरंत बाद उनका परिवार मॉस्को,रूस से लंदन आ गया था, जहां नूर का बचपन बिता।  1920 में वे फ्रांस चली गई, जहां वे पेरिस के निकट सुरेसनेस के एक घर में अपने परिवार के साथ रहने लगी। यह घर उन्हे सूफी आंदोलन के एक अनुयाई के द्वारा उपहार में मिला था। 1927 में पिता की मृत्यु के बाद उनके ऊपर माँ और छोटे भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी आ गई। स्वभाव से शांत, शर्मीली और संवेदनशील नूर संगीत को जीविका के रूप में इस्तेमाल करने लगी और पियानो की धुन पर संगीत का प्रसार करने लगी। कविता और बच्चों की कहानियाँ लिखकर अपने कैरियर को सँवारने लगी। साथ ही फ्रेंच रेडियो में नियमित योगदान भी देने लगी। 1939 में बौद्धों की जातक कथाओं से प्रभावित होकर उन्होने एक पुस्तक बीस जातक कथाएं  नाम से लंदन से प्रकाशित की। द्वितीय विश्व युद्ध के फैलने के बाद,फ्रांस और जर्मन की लड़ाई के दौरान वे 20जून 1940 को अपने परिवार के साथ समुद्री मार्ग से ब्रिटेन के फालमाउथ, कॉर्नवाल लौट आयीं।  


पहले वायु सेना और बाद में ख़ुफ़िया विभाग में भर्ती :-
अपने पिता के शांतिवादी शिक्षाओं से प्रभावित नूर को नजियों के अत्याचार से गहरा सदमा लगा। जब फ्रांस पर नाज़ी जर्मनी ने हमला किया तो उनके दिमाग़ में उसके ख़िलाफ़ वैचारिक उबाल आ गया। उन्होने अपने भाई विलायत के साथ मिलकर नाजी अत्याचार को कुचलने का निर्णय लिया।  19 नवंबर 1940 को, वे वायु सेना में द्वितीय श्रेणी एयरक्राफ्ट अधिकारी के रूप में शामिल हुईं, जहां उन्हें "वायरलेस ऑपरेटर" के रूप में प्रशिक्षण हेतु भेजा गया। जून 1941 में उन्होने आरएएफ बॉम्बर कमान के बॉम्बर प्रशिक्षण विद्यालय में आयोग के समक्ष "सशस्त्र बल अधिकारी" के लिए आवेदन किया, जहां उन्हें सहायक अनुभाग अधिकारी के रूप में पदोन्नति प्राप्त हुई।


बाद में नूर को स्पेशल ऑपरेशंस कार्यकारी के रूप में एफ (फ्रांस) की सेक्शन में जुड़ने हेतु भर्ती किया गया और फरवरी 1943 में उन्हें वायु सेना मंत्रालय में तैनात किया गया। उनके वरिष्ठों में गुप्त युद्ध के लिए उनकी उपयुक्तता पर मिश्रित राय बनी और यह महसूस किया गया कि अभी उनका प्रशिक्षण अधूरा है, किन्तु फ्रेंच की अच्छी जानकारी और बोलने की क्षमता ने स्पेशल ऑपरेशंस ग्रुप का ध्यान उन्होने अपनी ओर आकर्षित कर लिया,फलत: उन्हें वायरलेस आपरेशन युग्मित अनुभवी एजेंटों की श्रेणी में एक एक वांछनीय उम्मीदवार के तौर पर प्रस्तुत किया गया। फिर वह बतौर जासूस काम करने के लिए तैयार की गईं और 16-17 जून 1943 में उन्हें जासूसी के लिए रेडियो ऑपरेटर बनाकर फ्रांस भेज दिया गया। उनका कोड नाम 'मेडेलिन' रखा गया। वे भेष बदलकर अलग-अलग जगह से संदेश भेजती रहीं।


द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नूर विंस्टन चर्चिल के विश्वसनीय लोगों में से एक थीं। उन्हें सीक्रेट एजेंट बनाकर नाजियों के कब्जे वाले फ्रांस में भेजा गया था। नूर ने पेरिस में तीन महीने से ज्यादा वक्त तक सफलतापूर्वक अपना खुफिया नेटवर्क चलाया और नाजियों की जानकारी ब्रिटेन तक पहुंचाई। पेरिस में 13 अक्टूबर, 1943 को उन्हें जासूसी करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। इस दौरान खतरनाक कैदी के रूप में उनके साथ व्यवहार किया जाता था। हालांकि इस दौरान उन्होंने दो बार जेल से भागने की कोशिश की, लेकिन असफल रहीं। गेस्टापो के पूर्व अधिकारी हैंस किफर ने उनसे सूचना उगलवाने की खूब कोशिश की, लेकिन वे भी नूर से कुछ भी उगलबा नहीं पाए। 25 नवंबर, 1943 को इनायत एसओई एजेंट जॉन रेनशॉ और लियॉन के साथ सिचरहिट्सडिन्ट्स (एसडी), पेरिस के हेडक्वार्टर से भाग निकलीं, लेकिन वे ज्यादा दूर तक भाग नहीं सकीं और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। बात 27 नवंबर, 1943 की है। अब नूर को पेरिस से जर्मनी ले जाया गया। नवंबर 1943 में उन्हें जर्मनी के फॉर्जेम जेल भेजा गया। इस दौरान भी अधिकारियों ने उनसे खूब पूछताछ की, लेकिन उसने कुछ नहीं बताया। 


डकाऊ स्थित नूर का प्रतिरोध स्मारक

उन्हें दस महीने तक बेदर्दी से प्रताड़ित किया गया, फिर भी उन्होंने अपनी जुबान नहीं खोली। नूर वास्तव में एक मजबूत और बहादुर महिला थीं। 11 सिंतबर, 1944 को उन्हे और उसके तीन साथियों को जर्मनी के डकाऊ प्रताड़ना कैंप ले जाया गया, जहां 13 सितंबर, 1944 की सुबह चारों के सिर पर गोली मारने का आदेश सुनाया गया। यद्यपि सबसे पहले नूर को छोडकर उनके तीनों साथियों के सिर पर गोली मार कर हत्या की गई। तत्पश्चात नूर को डराया गया कि वे जिस सूचना को इकट्ठा करने के लिए ब्रिटेन से आई थी, वे उसे बता दे। लेकिन उसने कुछ नहीं बताया, अंतत: उनके भी सिर पर गोली मारकर हत्या कर दी गई। जब उन्हें गोली मारी गई, तो उनके होठों पर शब्द था -"फ्रीडम यानी आजादी"। इस उम्र में इतनी बहादुरी कि जर्मन सैनिक तमाम कोशिशों के बावजूद उनसे कुछ भी नहीं जान पाए, यहां तक कि उनका असली नाम भी नहीं। उसके बाद सभी को शवदाहगृह में दफना दिया गया। मृत्यु के समय उनकी उम्र सिर्फ 30 वर्ष थी।


जर्मनी में डचाउ में नाजियों का यह यातना कैंप, जहां नूर को गोली मारी गई थी

ब्रिटेन की सरकार ने 2012 में  नूर के बलिदान को सम्मान देते हुए लंदन में उनकी प्रतिमा स्थापित करवाई। ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ की बेटी ऐन ने भारतीय मूल की राजकुमारी की मूर्ति का अनावरण करते हुए सम्मान व्यक्त किया था। ब्रिटिश सरकार ने नूर इनायत खान को अपना सर्वोच्च नागरिक सम्मान जॉर्ज क्रास दिया। फ्रांस ने भी अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान-क्रोक्स डी गेयर से उन्हें नवाजा।


ब्रिटेन में नूर इनायत खान की कांसे की प्रतिमा 

भारतीय मूल की पत्रकार श्रावणी घोष ने भारतीय राजकुमारी पर एक किताब 'स्पाई प्रिसेंस' लिखी है तथा हॉलीवुड में इन पर 'Enemy of the Reich' नाम से फिल्म बन चुकी है। 


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1 comment:

  1. Maine aapko aphle bhi email kiya tha. Aap mere blog ki copy kar rahe hai . Yah sahi nahi hai, Please remove all my article from this blog .

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